दीर्घउत्तरीय प्रश्न (Long Answer Type Questions)
1. मानव संसाधन नियोजन को परिभाषित करते हुए उसके उद्देश्य बताइए।
or
2. विभिन्न स्तरों पर मानव संसाधन नियोजन को समझाइए।
मानव संसाधन नियोजन, मानव संसाधन की कमी अथवा आधिक्य दोनों अवस्थाओं से उपक्रम की रक्षा करता है और मानव संसाधन की मांग तथा पूर्ति में ऐसा सन्तुलन स्थापित करने में सहायक होता है, जिससे मानव संसाधन सम्बन्धी लागत में कमी लाकर, उसका अधिकतम उपयोग संभव किया जाता है।
मानव संसाधन नियोजन एक व्यापक शब्द है और इसमें मानव संसाधन का पूर्वानुमान, उसका स्कन्ध या स्टाॅक, एवं विश्लेषण, भर्ती तथा विकास सम्मिलित होता है। यह संगठन के वर्तमान तथा भावी उद्देश्यों की पूर्ति करता है।
मानव संसाधन नियोजन की विशेषतायें-मानव संसाधन नियोजन की प्रमुख विशेषतायें निम्न प्रकार हैं-
1.मानव संसाधन नियोजन, मानव संसाधन प्रबन्धन का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण अंग है।
2.इसके अन्तर्गत मानवीय संसाधनों की जरुरतों एवं उनकी पूर्ति में सामंजस्य स्थापित किया जाता है तथा उनको विकसित करने, उनका उपयोग करने एवं उनका अनुरक्षण करने का प्रयास किया जाता है।
3.यह पूर्वानुमान करने की एक प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से एक संगठन यह सुनिश्चित करता है कि उसके पास उचित समय, उचित स्थान, उचित संख्या में, उचित प्रकार के लोग कार्यों को सम्पादित करने हेतु उपलब्ध हैं।
4.मानव संसाधन नियोजन का लक्ष्य योग्य कर्मचारियों की निरन्तर पूर्ति द्वारा एक संगठन के स्थायित्व एवं प्रगति में योगदान देना होता है।
5.मानव संसाधन नियोजन, सम्पूर्ण संगठनात्मक नियोजन के अन्तर्गत एक उपप्रणाली होता है।
मानव संसाधन नियोजन के उद्देश्य-
मानव संसाधन नियोजन के उद्देश्य निम्नवत् हैं-
1.मानव संसाधन नियोजन का प्रमुख उद्देश्य मानवीय आवश्यकताओं का पूर्वानुमान करना तथा उनकी पूर्ति पर नियन्त्रण स्थापित करना होता है।
2.संगठन की भर्ती, चयन सम्बन्धी नीति निर्माण में मदद करना, जिससे कम लागत में श्रेष्ठ कर्मचारियों की प्राप्ति को सुनिश्चित किया जा सके।
3.मानवीय संसाधनों के आधिक्य अथवा अभाव का निर्धारण करना, तथा उसके अनुसार आवश्यकताओं का निर्धारण करना।
4.मानव संसाधन नियोजन को सम्पूर्ण संगठन के नियोजन के साथ जोड़ना।
5.कार्मिकों की निपुणताओं, ज्ञान, योग्यताओं, अनुशासन सम्बन्धी आवश्यकताओं का पूर्वाभास करना तथा उनमें सुधार करना।
6.संस्थान के लिए आवश्यक कर्मचारियों की संख्या तथा योग्यता के अनुसार भर्ती करना तथा उनका अनुरक्षण करना।
7.मानवीय संसाधनों के मूल्य लागत का आंकलन करना।
8.संस्थान के मानवीय संसाधनों का अनुकूलतम एवं सर्वाेतम उपयोग करना।
9.वैश्विक आर्थिक परिस्थितियों के अनुरुप मानवीय संसाधनों का प्रबन्ध करना।
10.संस्थान की नूतन कार्य योजनाओं एवं परियोजनाओं के लिए मानवीय संसाधनों की लागत का आंकलन करना।
11.संस्थान के अन्तर्गत विकास एवं विवेकीकरण के कार्यक्रमों की आवश्यकता की पूर्ति करना।
12.संस्थान के विभिन्न भागों एवं क्षेत्रों में मानवीय संसाधनों के समान वितरण को सुनिश्चित करना।
विभिन्न स्तरों पर मानव संसाधन नियोजन- विभिन्न स्तरों पर मानव संसाधन नियोजन निम्नवत् है:
1.राष्ट्रीय स्तर पर
2.क्षेत्रीय स्तर पर
3.औद्योगिक स्तर पर
4.इकाई स्तर पर
5.विभागीय स्तर पर
6.कार्य स्तर पर
1. राष्ट्रीय स्तर पर- प्रायः केन्द्र सरकार मानवीय संसाधनों के लिए, राष्ट्रीय स्तर पर योजना बनाती है। इसके द्वारा सम्पूर्ण देश के लिए मानवीय संसाधनों की आवश्यकता तथा उनकी पूर्ति का पूर्वानुमान किया जाता है।
2. क्षेत्रीय स्तर पर-इसके द्वारा सरकार की नीतियों पर आधारित किसी क्षेत्र विशेष जैसे कृषि, औद्योगिक, सेवा क्षेत्र की मानवीय संसाधन आवश्यकता तथा उनकी पूर्ति का पूर्वानुमान किया जाता है।
3. उद्योग स्तर पर-इसके अन्तर्गत किसी उद्योग विशेष जैसे- सीमेन्ट, वस्त्र, रासायनिक उद्योग की मानवीय संसाधन आवश्यकता तथा उनकी पूर्ति का पूर्वानुमान, उस उद्योग विशेष के उत्पादन या परिचालनात्मक स्तर को ध्यान में रखते हुए किया जाता है।
4. इकाई स्तर पर- इसमें किसी संगठन की मानवीय संसाधन आवश्यकता का, उसके व्यवसाय की योजना पर आधारित आँकलन सम्मिलित होता है।
5. विभागीय स्तर पर- इसके अन्तर्गत किसी संगठन में, एक विभाग विशेष की मानवीय संसाधन आवश्यकता का पूर्वानुमान सम्मिलित होता है।
6. कार्य स्तर पर-इस स्तर पर किसी संगठन के एक विभाग के अन्तर्गत एक कार्य विशेष, जैसे- यांत्रिक अभियन्ता के लिए मानवीय संसाधन आवश्यकता का पूर्वानुमान किया जाता है।
मानव संसाधन नियोजन के प्रकार: मानव संसाधन नियोजन के निम्न प्रकार हैं-
1.अल्पकालीन नियोजन (Short Term Planning) 2.मध्यकालीन नियोेजन (Medium Term Planning)
3.दीर्घकालीन नियोजन (Long Term Planning)
1. अल्पकालीन नियोजन-अल्पकालीन नियोजन उन परिस्थितियों में किया जाता है, जब एक संगठन में किसी नई विधि पर प्रयोग किया जा रहा हो अथवा नई तकनीकी के अनुसार प्रशिक्षित कर्मचारियों के उपलब्ध होने की अवधि तक की व्यवस्था करनी हो।
2. मध्यकालीन नियोेजन-मध्यकालीन नियोजन प्रायः सुपरवाइजर स्तर के पदो ंके लिए किया जाता है। सुपरवाइजर या पर्यवेक्षक तथा प्रबन्धकीय स्तर के पदों पर कार्य करने वाले कर्मचारी या तो सीधी भर्ती द्वारा लिए जा सकते हैं या पदोन्नति द्वारा।
3. दीर्घकालीन नियोजन-दीर्घकालीन नियोजन के द्वारा एक संगठन के व्यवसाय में स्थिरता लाने तथा प्रत्येक पद के लिए योग्यतम व्यक्ति को प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। दीर्घकालीन नियोजन की दृष्टि से प्रत्येक पद पर केवल योग्य व्यक्ति ही नियुक्त किया जाना अत्यन्त आवश्यक होता है।
3. किसी कर्मचारी का निष्पादन मूल्यांकन कैसे किया जाता है? वर्णन करें।
निष्पादन मूल्यांकन से अर्थ-उपक्रम में विभिन्न स्तरों पर कार्यरत कर्मचारियों की योग्यता एवं गुणों का समय-समय पर मूल्यांकन आवश्यक है। इसके द्वारा ही प्रबन्धक कर्मचारियों का भविष्य ज्ञात कर उनको पुरस्कृत कर सकते हैं। कार्यरत कर्मचारियों के गुणों का कार्य मापदण्डों के अनुरूप मूल्यांकन ही निष्पादन मूल्यांकन कहलाता है। “यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा कर्मचारियों की तुलनात्मक योग्यता का अंकन किया जाता है।‘‘
(1) ‘‘निष्पादन मूल्यांकन एक सुनियोजित एवं समय-समय पर किया जाने वाला, एक व्यक्ति की क्षमताओं का निष्पक्ष मूल्यांकन है, जो व्यक्ति के वर्तमान कार्य का मूल्यांकन तथा भविष्य से अधिक उच्च कार्य के प्रति अनुमान लगाता है।‘‘ -फ्लिप्पो
(2) ‘‘किसी व्यक्ति को अपने कार्य पर रहते हुए उसकी सापेक्षिक सेवाओं का जो कम्पनी को मिलती हैं, मूल्यांकन ही कर्मचारी मूल्यांकन है।‘‘ - आल्फोर्ड एवं बेट्टी
(3) “एक कर्मचारी की योग्यता का मूल्यांकन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कर्मचारी का मूल्यांकन कार्य आवश्यकताओं के अनुरूप और उसके कार्य निष्पादन के अनुसार किया जाता है। - स्टॉक, क्लोवियर एवं स्त्रीरोग
उद्देश्य एवं महत्त्व- निष्पादन मूल्यांकन सेविवर्गीय प्रबन्ध का एक महत्वपूर्ण यन्त्र है। इसकी उपयोगिता एवं उद्देश्य बहुमुखी है। मूल्यांकन दो दृष्टियों से किया जाता है: (क) नियोक्ता की दृष्टि से, एवं (ख) कर्मचारी की दृष्टि से नियोक्ता अथवा प्रबन्धक की दृष्टि से योग्यता मूल्यांकन का उद्देश्य: (प) उपलब्ध कार्य करने पर कर्मचारी द्वारा कार्य कुशलता में वृद्धि करनाय तथा (पप) प्रबन्धकों को सेविवर्गीय प्रबन्ध एवं प्रशासन कार्य में सहयोग देना। योग्यता मूल्यांकन द्वारा श्रमिकों को उनकी योग्यता के आधार पर उचित पारिश्रमिक मिल सकता है, तथा कार्य के प्रति उनकी रुचि बढ़ती है। रुचिवान श्रमिकों की कार्यदक्षता का पूर्ण उपयोग किया जा सकता है। श्रमिकों को सही कार्य पर लगाने में योग्यता मूल्यांकन सहायता करता है, तथा प्राप्त आलेखों से श्रमिक को अधिक वेतन वृद्धि, पदोन्नति, कार्य अभिप्रेरण में सहायता मिलती है। मूल्यांकन आलेख श्रमिक विवाद, पदोन्नति, पद-अवनति, स्थानान्तरण, आदि के समय भी उपयोगी सिद्ध होते हैं।
निष्पादन मूल्यांकन के प्रकार- ?
(1)आकस्मिक, अनियोजित तथा विश्रृंखला मूल्यांकनइस प्रणाली के अन्तर्गत कर्मचारी की योग्यता का मूल्यांकन किसी निर्धारित प्रक्रिया के अनुरूप नहीं किया जाता है। सामान्यतः उच्चाधिकारी अपने अधीनस्थ की योग्यता का मूल्यांकन व्यक्तिगत अवलोकन के आधार पर करते हैं। निष्पादन मूल्यांकन की विभिन्न प्रणालियों के विकास के साथ इसका प्रयोग किया गया है।
(2) पारस्परिक तथा सुनियोजित मूल्यांकन- इसके अन्तर्गत ¼i½कर्मचारी की विशेषताएँ जैसे पराश्रितता, स्वामिभक्ति, साहस तथा कार्यारम्भ की पहल तथा ¼ii½कर्मचारी का योगदान जैसे कार्य के गुण तथा मात्रा, उत्तरदायित्व एवं नेतृत्व सहयोग, नियमितता, अधिकारियों, सहयोगियों और अधीनस्थ कर्मचारियों के प्रति व्यवहार, दोनों बातें सम्मिलित की जाती है। इन सभी कार्यों के मूल्यांकन में एक ही प्रणाली का प्रयोग किया जाता है जिससे विभिन्न व्यक्तियों के मूल्यांकन निर्णयों की आपस में तुलना की जा सके।
(3) व्यवहार प्रणाली-इस विधि में प्रबन्ध एवं कर्मचारी सम्मिलित रूप से लक्ष्यों का निर्धारण करते है। डी. मेक विगोर के अनुसार पारस्परिक विधि में पर्यवेक्षक सर्वेसर्वा होता है। वह समय-समय पर व्यक्ति की परख एवं आलोचना करता है। अतः इस प्रणाली में सभी दोषों को दूर करने के लिए मिल-जुलकर लक्ष्य निर्धारण की नयी प्रणाली की व्यवस्था की गयी है। इसमें कर्मचारी तथा कार्य मूल्यांकनकर्ता दोनों सामूहिक रूप से कार्य प्रगति की समीक्षा करते है, जिससे सहयोग के आधार पर आवश्यक सुधार किया जा सके।
सफल निष्पादन मूल्यांकन के तत्व-केवल मात्र उचित मूल्यांकन प्रणाली के निर्माण से ही सफल मूल्यांकन सम्भव नहीं है। मूल्यांकन की सफलता इस तथ्य पर निर्भर करती है कि कितनी भली प्रकार से मूल्यांकन कार्यक्रम को क्रियान्वित किया है और कर्मचारी किस हद तक इस प्रणाली से संतुष्ट है। एक सफल मूल्यांकन प्रणाली में निम्न तत्वों का समावेश अवश्य किया जाना चाहिए:
(1) मूल्यांकन के लिए एक उचित कार्यविधि का अनुसरण किया जाना चाहिए।
(2) मूल्यांकनकर्ता को मूल्यांकन प्रणाली के बारे में पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। मूल्यांकन से सम्बन्धित घटक तथा घटक प्रमाप भली-भाँति परिभाषित होना चाहिए तथा उनका पर्याप्त विचार-विमर्श के बाद पूर्ण विश्लेषण होना चाहिए।
(3) पर्यवेक्षक तथा कर्मचारी के बीच आपसी विश्वास, तथ्य दृढ निश्चय होने पर बहुत सी बाते भली प्रकार समझी एवं समझायी जा सकती हैं। कई समस्याओं का निवारण आपसी वार्तालाप एवं विचार-विमर्श द्वारा किया जा सकता है।
(4) पर्यवेक्षक को अधीनस्थ कर्मचारी का मूल्याकन अच्छी तरह सोच विचार कर करना चाहिए जिससे बाद में उत्पन्न होने वाले विवाद का भली भाँति निवारण किया जा सके। अर्थात् वह न अधिककठोर हो और न अधिक उदार वह पक्षपातपूर्ण रवैया भी नहीं रखे।
(5) मूल्यांकन में व्यक्तिगत गुणों से कार्य निष्पादन के निर्णयों को अधिक महत्व दिया जाना चाहिए। अतः कार्य को अधिक अच्छे ढंग से पूरा करने के लिए ठोससुझाव दिये जाने चाहिए।
(6) पर्यवेक्षक को कर्मचारी के दोषों एवं गुणों को भली-भांति विश्लेषित करना चाहिए, तदनुसार दोषों को दूर करने के उपाय कर्मचारी को सुझाने चाहिए।
(7) पर्यवेक्षक को चाहिए कि वह कर्मचारी को सदैव सुझाव एवं सहायता देने के लिए तत्पर रहे। प्रत्येक कर्मचारी को अपने पर्यवेक्षक पर इतना विश्वास होना चाहिए कि पर्यवेक्षक उसकी किसी भी समस्या का समाधान करने में सक्षम है।
निष्पादन मूल्यांकन प्रक्रिया-रिचर्ड ए. एनिन के अनुसार, निष्पादन मूल्यांकन प्रक्रिया में कम्पनी के कर्मचारियों की आवश्यकताओं तथा उनके मूल्यांकन की विधि में इस प्रकार का समन्वय होना चाहिए कि कार्य भली-भाँति चल सके। इसके अनुसार अग्र पद्धति का प्रयोग किया जाना चाहिए।
(1) अधीनस्थ कर्मचारी के कार्य का मूल्यांकन प्रतिवेदन (Evaluation Report) पर्यवेक्षक द्वारातैयार किया जाना चाहिए।
(2) पर्यवेक्षक मूल्यांकन प्रपत्र उस समिति के सम्मुख प्रस्तुत करता है, जो उसका पुनरावलोकन करती है तथा संशोधन करती है।
(3) पर्यवेक्षक या वरिष्ठ अधिकारी को कर्मचारी के मूल्यांकन पर कर्मचारी के साथ एकान्त में बातचीत करनी चाहिए।
(4) वरिष्ठ अधिकारी तथा अधीनस्थ कर्मचारी, दोनों को मिलकर कार्य सुधार की दृष्टि से योजनाएँ बनानी चाहिए।
प्रायः मूल्यांकन पर सामान्यतः संक्षिप्त तथा संशोधन योग्य होता है और उसमे निम्नवत बातें सम्मिलित की जानी चाहिएः
(1) कर्मचारी के विशिष्ट गुण क्या है? (2) कर्मचारी के कार्य निष्पादन में दोष क्या है, जिनसे किसे किया जा सकता है और उस दृष्टि से कर्मचारी का विकास कैसे सम्भव है? (3) सामान्यतः कर्मचारी का कार्य निष्पादन किस प्रकार का है?
‘‘एनिन की मान्यता है कि ‘‘मूल्यांकन अधिकतर व्यावहारिक होते है जिससे पर्यवेक्षक द्वारा अपेक्षित कार्यों से व्यक्ति द्वारा नियादित कार्यों की तुलना की जाती है। इसके अतिरिक्त एक लाक्षणिक मूवी (Character roll) होती है जिसके आधार पर समय-समय पर कार्य निष्पादन जॉब की जाती है उसके आधार पर कर्मचारी का श्रेणीकरण किया जाता है। कई बार नेतृत्व, उत्साह विश्वसनीयता के आधार पर जांचकर्ता एवं कर्मचारी के बीच विवाद हो जाता है तथा इससे मूल्यांकन का सही महत्व ज्ञात नहीं हो पाता।
मूल्यांकन कार्यक्रम के चरण- मूल्यांकन क्रियाविधि व्यक्ति के विकास के लिए आवश्यक है। ऐसे विकास से भली-भाँति कार्य निष्पादन तथा नयी तकनीकी ज्ञात करने में सहायता मिलती है। एक मूल्यांकन कार्यक्रम का निर्धारणकरने में निम्न चरण आवश्यक होते है।
(1) कार्य एवं उत्तरदायित्वों का विश्लेषण-मूल्यांकन कार्यक्रम के कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों के निर्धारण के लिए अधीनस्थ कर्मचारियों से प्राप्त विचार-विमर्श किया जाना चाहिए।
(2) कार्य निष्पादन के प्रमाप निर्धारित करना- पर्यवेक्षक को इन्हें निर्धारित करते समय अधीनस्थ कर्मचारी से विचार-विमर्श करना चाहिए, जिससे उचित प्रमाप निर्धारित किये जा सके, तथा उन्हें यथासम्भव सही रूप से क्रियान्वित किया जा सके।
(3) कार्य निष्पादन का पर्यवेक्षण करना।
(4) कर्मचारी की योग्यता का मूल्यांकन करना, तथा उनके विकास के अवसरों के बारे में अनुमान लगाना।
(5) मूल्यांकन रिपोर्ट के बारे में विचार-विमर्श करना, तथा उसके गुण व दोषों को कर्मचारी को अधिक कुशलतापूर्वक कार्य करने के लिए उचित प्रकार से मार्गदर्शन प्रदान करना।
(6) कर्मचारी के विकास के लिए योजना बनाना-इसके अन्तर्गत नये प्रकार के विशिष्ट कार्य आरम्भ करते हैं तथा कर्मचारी कोप्रशिक्षित कर उन्हें अधिकाधिक निर्णयन का अवसर प्रदान करते हैं, तथा कर्मचारी को अपना उत्तरदायित्वसमझने का अवसर देते है।
(7) प्रगति की समीक्षा तथा पुनर्मूल्यांकन
(8) कार्य को मान्यता देना तथा
(9) मूल्यांकन के आधार पर नये लक्ष्य निर्धारित करना।
निष्पादन मूल्यांकन विधियाँ-कर्मचारी के निष्पादन का मूल्यांकन करने की कई विधियों प्रचलित है विभिन्न कार्यों को तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर प्रचलित प्रणालियाँ कर्मचारी को निष्पादन योग्यता आँकने में सहायक होती है। कार्य मूल्यांकन तथा निष्पादन मूल्यांकन के आधार पर सेविवर्गीय के वेतन एवं मजदूरी का निर्धारण किया जाता है। मूल्यांकन की आधुनिक विधियाँ अधिक न्यायसंगत एवं तर्क पर आधारित है, अतः उनमें मूल्यांकनकर्ता के पूर्वाग्रहों को अधिक स्थान प्राप्त नहीं है।
मूल्यांकन की अम विधियाँ अधिक प्रचलित हैं।
(1) सीधी क्रम विधि।
(2) श्रेणीकरण
(3) व्यक्ति से व्यक्ति की तुलना विधि।
(4) बलात् वितरण विधि।
(5) आरेखीय क्रम निर्धारण मान
(6) बलात् चुनाव-वर्णन विधि
(7) आलोचनात्मक प्रसंग विधि
(8) घटक तुलना विधि
(9) उपलब्धियों के अनुसार मूल्यांकन
4. अधिशासी विकास को समझाइए।
अधिशासी विकास
प्रबन्ध के विभिन्न स्तरों-उच्च, मध्यम तथा निम्न का विकास करना अधिशासी विकास के अन्तर्गत सम्मिलित किया जाता है। अधिशासी व्यक्तियों के अन्तर्गत वे व्यक्ति शामिल होते हैं, जो कि क्रियाओं का समन्वय एवं निर्देशन करते हैं। ये कर्मचारी प्रशासन को नियन्त्रित करते हैं। जूलियस ने इसकी परिभाषा देते हुए बताया कि अधिशासी विकास एक कार्यक्रम है, जिसके द्वारा वांछित उद्देश्यों की उपलब्धि हेतु अधिशासी क्षमताओं में अभिवृद्धि की जाती है।‘‘ अधिशासी प्रशिक्षण एवं विकास की वह प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से व्यक्ति विशेष किसी संगठन का कार्य सुचारु रूप से चलाने एवं प्रभावपूर्ण नियन्त्रण की कला सीखता है। इसके अन्तर्गत कार्य एवं कार्य का ज्ञान सीखने का कार्य साथ-साथ होता है।
प्रो. डेल एस. बीच के अनुसार-‘‘अधिशासी विकास की एक ऐसी व्यवस्थित विधि है, जिसके द्वारा व्यक्ति कार्य संगठनों का प्रभावपूर्ण प्रबन्ध करने के लिए ज्ञान, कौशल, दृष्टिकोण एवं परिज्ञान प्राप्त करते हैं।‘‘
अधिशासी विकास का नियोजन
अधिशासी विकास कार्यक्रम का नियोजन निम्न प्रकार से होता है-
1.विकास आवश्यकताओं का पता लगाना-अधिशासी विकास प्रोग्राम बनाते समयमुख्य रूप से यह बात मालूम करनी चाहिए कि उपक्रम को आवश्यकतानुसार कौनसे प्रबन्धकों को जरूरत होगी। भावी पूर्वानुमान लगाते समय भविष्य के परिवर्तनों, जैसे औद्योगिक विकास, नयी उत्पादन विधियाँ, संगठन का सम्भावित आकार आदि का ध्यान रखा जाना चाहिए। इसके अन्तर्गत यह नीति भी स्पष्ट की जानी चाहिए कि भविष्य में निर्मित बड़े पद कम्पनी में कार्यरत अधिकारियों और कर्मचारियों में से भरे जायेंगे अथवा बाहर के लोगों के द्वारा उन्हें भरा जायेगा।
2.वर्तमान प्रबन्धकों की योग्यताओं का मूल्यांकन- अधिशासी विकास के नियोजन का दूसरा चरण उपक्रम के कार्यरत प्रबन्धकों की कार्यक्षमता का मूल्यांकन करता है। इस मूल्यांकन द्वारा यह बात प्रकट हो जाती है कि प्रबन्धकों की वर्तमान क्षमतायें एवं अनुभव क्या क्या है। इसके आधार पर भावी विकास की योजना बनाई जा सकती है।
3.सेविवर्गीय प्रबन्धकों की सूची बनाना- अधिशासी विकास नियोजन के अन्तर्गत वर्तमान प्रबन्धकों की योग्यताओं के मूल्यांकन के बाद उनकी जानकारी की सूची बनाई जाती है। इसके अन्तर्गत उनकी सभी व्यक्तिगत सूचनाओं की जानकारी होनी चाहिए।
4.व्यक्तिगत विकास कार्यक्रम नियोजन- प्रत्येक व्यक्ति के व्यवहार मानसिक शारीरिक स्तर एवं भावात्मक गुणों में अन्तर होता है। अतः कोई एक कार्यक्रम सभी के लिए सफल नहीं हो सकता। प्रत्येक कार्यक्रम बनाने के पूर्व यह जानकारी कर लेना आवश्यक होता है कि व्यक्ति विशेष की सीमाये क्या है? इस जानकारी के आधार पर ही कार्यक्रम निश्चित किये जाते हैं तथा व्यक्ति विकास हेतु आवश्यकताओं तथा संगठन में उपलब्ध प्रशिक्षण सुविधाओं में समायोजन किया जाता है।
5.प्रशिक्षण तथा विकास कार्यक्रम बनाना-अधिशासी विकास योजना की अगली सीढ़ी प्रशिक्षण तथा विकास कार्यक्रमों को तैयार करना है। इसके लिए विस्तृत एवं सुनियोजित कार्यक्रम बनाया जाता है। सधे हुए संक्षिप्त कार्यक्रम विकास कार्यक्रम की जान होते हैं। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत मानवीय सम्बन्धों, गति अध्ययन, सृजनात्मक विचार, स्मरण शक्ति, निर्णय क्षमता, प्रशिक्षण, नेतृत्व क्षमता में वृद्धि आदि शामिल किये जाते हैं। ऐसे कार्यक्रम आयोजकों को प्रशिक्षण की आवश्यकता पूरी तरह से जाँच लेनी चाहिए। ऐसे कार्यक्रम का लेखा एवं प्रमाण संगठन में रखा जाता है।
कार्यक्रम का मूल्यांकन-अधिशासी विकास कार्यक्रम के पूरा होने पर उसका मूल्यांकन करना चाहिए। इसमें कार्यक्रम कहाँ तक सफल रहा, इसकी जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इस प्रकार के मूल्यांकन की निम्नलिखित विधियों है.
¼i½ विभिन्न घटकों के माध्यम से प्रशिक्षणार्थियों की प्रतिक्रिया मालूम करना। उसके सम्बन्ध में आवश्यक सर्वेक्षण करना
¼ii½ परीक्षण एवं परीक्षाओं द्वारा इस बात का पता लगाना कि प्रशिक्षणार्थी ने कितना सीखा है? अर्थात् उनकी योग्यताओं का पता लगाया जा सकता है।
¼iii½ कार्य प्रणाली परिवर्तन से कार्य पर क्या प्रभाव पड़ा, इसका अध्ययन करना तथा प्रशिक्षणार्थियों, उनके साथियों या अधीनस्थों से पूछताछ करके जानकारी हासिल करना।
¼iv½ प्रशिक्षण के परिणामस्वरूप हुए उन परिवर्तनों की जाँच करना तथा निष्कर्म निकालना, जिनसे उत्पादन लागत, किस्म, परिवेदना तथा उत्पादन प्रभावित हुए हो।
अधिशासी विकास का महत्व-औद्योगिक क्रान्ति के परिणामस्वरूप औद्योगिक उपक्रमों की समस्यायें बढ़ गयी हैं। प्राचीन समय में अधिशासी विकास पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता था। आधुनिक समय में तो अधिशासी विकास सेविवर्गीय का एक महत्वपूर्ण कार्य माना जाने लगा है। बड़ी-बड़ी व्यावसायिक उपक्रम तो अपने अधिकारियों के विकास पर भारी धनराशि खर्च करने लगी है। कार्य को बढ़ती हुई जटिलताओं के कारण अधिशासी विकास का महत्व और भी अधिक हो गया है। द्वितीय महायुद्ध के पूर्व अधिशासी विकास कार्यक्रमों का कोई नाम ही नहीं जानता था, परन्तु आज के समय में अधिशासी विकास से अनभिज्ञ व्यक्ति को परम्परागतवादी कहा जाता है। अधिशासी विकास के महत्व को हम निम्न तथ्यों द्वारा स्पष्ट कर सकते है
1.वर्तमान समय में पेशेवर प्रबन्ध का प्रादुर्भाव हो चुका है। डॉक्टर, इन्जीनियर तथा चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट आदि के समान प्रबन्धकों को भी विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। जब से यह आर्थिक सत्ता पूंजीपतियों के हाथ से निकल कर पेशेवर प्रबन्धकों के हाथ में आयी है, तब से उनमें अधिक ज्ञान और कौशल की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी है, अतः अधिशासी विकास कार्यक्रमों की विशेष आवश्यकता अनुभव को जाती है।
2.जिस गति से औद्योगिक उपक्रमों की संख्या में वृद्धि हो रही है, उस संख्या में योग्य प्रबन्धकों का विकास नहीं हो रहा है। नवीनतम प्रविधियों तथा यन्त्रों की होड़ लगी है। ऐसी परिस्थितियों में अनुभवी एवं योग्य प्रबन्धकों की प्राप्ति होना कठिन होता है। अतः अधिशासी विकास कार्यक्रमों की आवश्यकता अधिक होती है।
3.वर्तमान समय में तकनीकी एवं वैज्ञानिक क्षेत्र में हो रहे क्रान्तिकारी परिवर्तनों ने प्रबन्धकीय कार्यों को भी जटिल बना दिया है। इन प्रबन्धकीय जटिलताओं के साथ समायोजन करने हेतु अधिशासी विकास की आवश्यकता होती है, क्योंकि प्रबन्धकों को परिवर्तनों से अवगत कराना आवश्यक होता है तथा प्रबन्धकों को इस योग्य बनाना होता है, जिससे वे सभी परिस्थितियों में निर्णय ले सकें।
4.वर्तमान समय में व्यवसाय के सामाजिक उत्तरदायित्व की विचारधारा का प्रबल विकास हो चुका है। प्रबन्धकों को उपभोक्ताओं, सेवायोजकों, श्रमिकों, सम्पूर्ण सुमुदाय तथा प्रतिस्पर्धी व्यवसायियों के प्रति अनेक उत्तरदायित्व पूरे करने पड़ते है। प्रबन्धकों को सामाजिक उत्तरदायित्व की विचारधारा से अवगत कराने के लिए अधिशासी विकास कार्यक्रमों की आवश्यकता होती है।
5.वर्तमान समय में साधनों के निर्देशन की अपेक्षा व्यक्तियों के विकास पर अधिकध्यान दिया जाने लगा है। अधिशासियों का विकास करना भी आवश्यक होता है। अधिशासियों में छुपी हुई प्रतिभा को सामने लाने तथा उनकी कार्यक्षमता का विकास करने के लिए अधिशासी विकास करना होता है।
6.प्रत्येक उपक्रम के पास तथा राष्ट्र के पास साधन सीमित मात्रा में ही होते हैं। अतः इन साधनों का सदुपयोग करने हेतु अधिशासी विकास करना होता है।
लघुउत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)
1. चयन प्रक्रिया क्या है?
योग्य कर्मचारियों पर सम्पूर्ण संस्था की सफलता निर्भर करती है। कुशल कर्मचारी संस्था की सम्पत्ति होते हैं। वे संस्था की ख्याति व श्रेष्ठ छवि का निर्माण करते हैं। अतः संस्था में योग्य, दक्ष एवं कत्र्तव्यनिष्ठ कर्मचारियों का चयन किया जाना चाहिए। कर्मचारियों के चयन से आशय विभिन्न अभ्यर्थियों में से संस्था की आवश्यकता के अनुसार योग्य अभ्यर्थी को छाँटना व नियुक्त करना है।
दूसरे शब्दों में, यह उपलब्ध प्रत्याशियों में से रिक्त स्थानों के लिए सर्वोत्तम व्यक्तियों को चुनने की प्रक्रिया है। यह एक नकारात्मक प्रक्रिया है। क्योंकि उपयुक्त प्रत्याशियों का पता लगाने के लिए अयोग्य व्यक्तियों को अस्वीकार करना होता है। यह कार्य करने के इच्छुक व्यक्तियों में से योग्यतम व्यक्तियों के चयन की प्रक्रिया है। इस चयन के लिए अनेक कदम उठाये जाते हैं, जैसे- आवेदन पत्रों की जांच, साक्षात्कार, योग्यता-परीक्षण, स्वास्थ्य परीक्षा आदि।
डेल योडर के शब्दों में - चयन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा नियुक्ति के इच्छुक प्रार्थियों को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है। वे जिन्हें नियुक्ति का प्रस्ताव करना है, और वे जिन्हें नियुक्ति का प्रस्ताव नहीं करना है।
चयन प्रक्रिया के लक्षण -
1.यह एक नकारात्मक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा अयोग्य व्यक्तियों को अस्वीकारा जाता है।
2.यह प्रत्याशियों की योग्यता, अनुभव, कौशल, स्वास्थ्य, कार्यक्षमता आदि गुणों का मूल्यांकन है।
3.यह योग्यतम व्यक्तियों के चुनने की प्रक्रिया है।
4.यह प्रत्याशियों द्वारा उत्तरोत्तर बाधाओं को पार करने की प्रक्रिया है।
5.यह छंटाई की प्रक्रिया है।
6.डेल योडर, चयन, ‘‘बाधाओं को जाओ, मत जाओ’’ की कसौटी मानता है। जो इन बाधाओं को पार करते हुए अन्त तक पहुँच जाते हैं, वे चुन लिए जाते हैं। जो इन बाधाओं में अटक जाते हैं, वे चयन दौड़ से बाहर हो जाते हैं।
श्रेष्ठ चयन का महत्व -व्यवसाय की सफलता इसके योग्य कर्मचारियों पर ही निर्भर करती है। उपयुक्त एवं कुशल कर्मचारियों के चयन का महत्व निम्न कारणों से बढ़ जाता है -
1.योग्य कर्मचारियों के चयन से न केवल संस्था के लाभों में वृद्धि होती है, वरन् संस्था की ख्याति व प्रतिष्ठा भी बढ़ती है।
2.उचित चयन से मानव शक्ति के आवर्तन में कमी होती है तथा कर्मचारियों का मनोबल बढ़ता है।
3.कर्मचारियों की कत्र्तव्यनिष्ठा, स्वामीभक्ति और अपनत्व तथा सहयोग की भावना में वृद्धि होती है।
4.नियोक्ता व कर्मचारियों के मध्य सुदृढ सम्बन्धों का निर्माण होता है।
5.ईमानदार व स्व-अनुशासित कर्मचारियों से उत्पादकता बढ़ती है तथा लागतों व व्ययों में कमी हो जाती है।
6.कार्य अभिरूचि होने के कारण प्रशिक्षण में सुगमता होती है।
7.कार्यो का निस्पादन कुशलतापूर्वक होता है।
8.संस्था में औद्योगिक शान्ति बनी रहती है तथा उपद्रव, दलगत राजनीति, स्वार्थ पूर्ण संघर्ष आदि पनप नहीं पाते हैं।
9.संस्था की नीतियों व कार्य प्रणाली में स्थायित्व आता है तथा संस्था का विकास होता है।
चयन प्रक्रिया (Selection Process)
कर्मचारियों की चयन प्रक्रिया योग्य कर्मचारियों के चुनाव की एक लम्बी श्रंखला है, जिसमें उनकी शारीरिक व मानसिक योग्यता व रूचि का विभिन्न प्रकार से परीक्षण किया जाता है तथा योग्य पाने पर ही उनका चुनाव किया जाता है। कुशल एवं उपयुक्त कर्मचारी का चयन एक सरल कार्य नहीं है। अतः चयन प्रक्रिया में आवेदन को विभिन्न स्तरों पर विभिन्न प्रकारों से परखा जाता है।
डेल योडर के अनुसार-“चयन प्रक्रिया को बाधाओं के क्रम के रूप में भी वर्णित किया जाता है, क्योंकि इस प्रक्रिया के दौरान एक प्रार्थी को एक-एक करके अनेक बाधाओं को पार करना पड़ता है।”
सभी संस्थाओं में समान प्रकार की चयन प्रक्रिया का प्रयोग नही किया जाता है। संस्थायें सामान्यतः अपनी आवश्यकता एवं साधनों के अनुसार ही कर्मचारी की चयन प्रक्रिया को निर्धारित करती है। चयन प्रक्रिया में अनौपचारिक साक्षात्कार से लेकर नियुक्ति एवं कार्य परिचय तक कई स्तर हो सकते हैं। एक सामान्य चयन प्रक्रिया में निम्न चरण हो सकते हैं-
1.नियोजन कार्यालय से प्रार्थी का स्वागत
2.प्रारम्भिक साक्षात्कार
3.रिक्त प्रार्थना-पत्र को भरवाना
4.चयन परीक्षण
5.मुख्य साक्षात्कार
6.संदर्भ जांच
7.चिकित्सा परीक्षा
8.चयन निर्णय एवं नियुक्ति
9.कार्य परिचय
10.परिवीक्षा
2. प्रशिक्षण प्रक्रिया को समझाइए।
3. स्थानान्तरण क्यों और कैसे होते हैं?
स्थानांतरण(TRANSFER)
स्थानांतरण से आशय कर्मचारी को समान स्तर, समान उत्तरदायित्व, समान वेतन, समान कार्यकारी दशा और समान प्रतिष्ठा के पदों पर एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजना है। कर्मचारियों की इस क्षैतिजीय गति को ही स्थानांतरण कहते हैं।
डेल योडर के अनुसार-स्थानांतरण में किसी कर्मचारी का एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरण किया जाता है, ऐसे कार्य परिवर्तन से कर्मचारी के उत्तरदायित्व अथवा क्षतिपूर्ति में कोई अंतर नहीं पड़ता है।
डेल योडर ने स्थानांतरण की विस्तृत परिभाषा देते हुए कहा है कि इससे पदोन्नति एवं पद-अवनति के परिणामस्वरूप होने वाले कार्य परिवर्तन भी सम्मिलित हैं।
स्थानांतरण के कारण -
1.प्रशासकीय कारण
2.तकनीकी कारण
3.कर्मचारी सुविधा
4.औद्योगिक सम्बन्ध
1.प्रशासकीय कारण -
(क) कर्मचारियों की कमी से विभागीय फेरबदल
(ख) विभागीय प्रगति के कारण विभागीय फेरबदल
(ग) प्रशासकीय नियंत्रण की दृष्टि से प्रायः कर्मचारी को एक विभाग में निर्धारित समय से अधिक समय तक नहीं रखा जाता।
2.तकनीकी कारण -
(क) विशिष्ट तकनीकी योग्यता वाले कर्मचारियों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित किया जाता है, जिससे विभागीय कार्य ठीक प्रकार से चलता रहे।
(ख) कई बार कर्मचारी को कार्य आरम्भ के समय अनुपयूक्त स्थान पर नियुक्त किया जाता है बाद में कार्य विश्लेषण के आधार पर स्थानांतरित किया जाता है।
(ग) कर्मचारियों को प्रशिक्षण के लिए भी स्थानांतरित किया जाता है।
3.कर्मचारी सुविधा -
(क) कर्मचारी के कार्य पर संतुष्ट न होने पर
(ख) कर्मचारी की बीमारी के कारण
(ग) कर्मचारियों की मांग पर एक स्थान से दूसरे स्थान पर
(घ) कर्मचारी की रूचि में परिवर्तन होने पर उपयुक्त स्थान पर
4.औद्योगिक सम्बन्ध -
(क) संगठन में अच्छे औद्योगिक सम्बन्ध बनाये रखने के लिए स्थानांतरण किया जाता है।
(ख) कर्मचारी समूहों में पारस्परिक विवाद हो जाने पर कर्मचारी का स्थानांतरण करना आवश्यक हो जाता है।
(ग) कर्मचारी स्वयं सामाजिक प्राणी होने के कारण सदैव मैत्रीपूर्ण वातावरण में रहना चाहता है। अतः उसकी मांग के अनुसार यथासंभव समायोजन का प्रयास किया जाता है।
उपयुक्त कारणों के अतिरिक्त पदोन्नति अथवा पद-अवनति के समय भी स्थानांतरण किया जाता है।
स्थानांतरण नीति -स्थानांतरण के फलस्वरूप कर्मचारी को कई कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। उसे नये वातावरण, नये समूह, नये यंत्रों व उपकरणों तथा नये प्रबंधकों के साथ कार्य करना पड़ता है। अनावश्यक एवं अवांछनीय स्थानांतरण से कर्मचारी चिड़चिड़ा होता है, अतः प्रत्येक संगठन में स्थानांतरण की नीति स्पष्ट होनी चाहिए।
स्थानांतरण नीति में निम्न बातों का समावेश होना चाहिए-
(क) नीति पक्षपात रहित होनी चाहिए तथा इसकी जानकारी सभी कर्मचारियों को होनी चाहिए।
(ख) स्थानांतरण नीति सभी विभागों में समान रूप से लागू होनी चाहिए।
(ग) स्थानांतरण सम्बन्धी नीति के अन्तर्गत स्थानांतरण के कारणों का उल्लेख होना चाहिए।
(घ) स्थानांतरण सम्बन्धी सभी स्थान स्पष्ट होने चाहिए।
(ड़) स्थानांतरण के परिणामस्वरूप किसी कर्मचारी के वेतन, प्रतिष्ठा एवं उत्तरदायित्व की कमी नहीं होनी चाहिए।
स्थानांतरण के प्रकार - स्थानांतरण के दो प्रकार होते हैं -
1.उद्देश्य के आधार पर
2.इकाई के आधार पर
1.उद्देश्य के आधार पर -
(क) उत्पादन स्थानांतरण-इसके अन्तर्गत एक ही प्रकार के कार्य में संलग्न कर्मचारियों को आवश्यकतानुसार विभिन्न विभागों में कार्य सौंपा जाता है। यदि किसी विभाग में कार्य बढ़ जाता है तो दूसरे विभागों के कर्मचारियों का स्थानांतरण कर दिया जाता है। किसी विभाग में कमी हो जाने पर कर्मचारियों को जबरी-छुट्टी (Lag-off) से बचाने के लिए भी इस प्रकार का स्थानांतरण किया जाता है।
(ख) प्रतिस्थापन स्थानांतरण -प्रतिस्थापन स्थानांतरण का मुख्य उद्देश्य वरिष्ठ कर्मचारियों को कार्यरत रखना है। प्रतिस्थापन स्थानांतरण भी उत्पादन स्थानांतरण की भांति ही है। इसमें कर्मचारी को एक कार्य से हटाकर दूसरे स्थान पर लगाया जाता है, जहाँ पहले से या तो कोई नया व्यक्ति कार्य कर रहा था, या निम्न पद का व्यक्ति कार्य कर रहा था। प्रतिस्थापन स्थानांतरण कई बार अस्थायी व्यवस्था के लिए भी किया जाता है।
(ग) कार्य परिवर्तन हेतु स्थानांतरण-समस्तरीय कर्मचारियों को समय-समय पर विभिन्न विभागों में रखकर सभी कार्यो के लिए उन्हें उपयुक्त बनाया जाता है। ऐसे कार्य जिनकी प्रकृति एक सी होती है, किन्तु जिसमें विभिन्न क्रियायें की जाती है, इस प्रकार के स्थानांतरण का कारण बनते हैं।
(घ) पारी स्थानांतरण-वे प्रतिष्ठान जहाँ दो अथवा तीन पारियों में कार्य होता है, वहाँ समानता के आधार पर कर्मचारियों को बारी-बारी से दिन अथवा रात्रि पारी में स्थानांतरण किया जाता है। कुछ कारखानों में यह व्यवस्था नियमित रूप से लागू होती है। जहाँ ये नियम नहीं होते वहाँ स्थानांतरण द्वारा पारी परिवर्तन किया जाता है।
(ड़) निदानात्मक स्थानांतरण-कर्मचारी समूह के आपसी मनमुटाव को कम करने के लिए अथवा कर्मचारी की पर्यवेक्षक से झड़प हो जाने से अथवा कर्मचारी का स्वास्थ्य किसी स्थान विशेष पर ठीक नहीं रहने से अथवा किसी कर्मचारी को अनुशासन की दृष्टि से स्थानांतरण करना ही निदानात्मक स्थानांतरण है।
(च) उपचारात्मक स्थानांतरण-उपचारात्मक स्थानांतरण कर्मचारी को सीख देने की दृष्टि से किये जाते हैं। निदान और उपचार दोनों एक ही उद्देश्य की पूर्ति करते हैं। निदान के लिए की गई कार्यवाही का उद्देश्य अव्यवस्था को समाप्त करना है तथा उपचार का उद्देश्य भी अव्यवस्था को समाप्त करना है। उपचार हेतु किये गये स्थानांतरण में कर्मचारी को कुछ कष्टप्रद स्थिति का सामना करना पड़ता है। उसे प्रतिकूल स्थान पर कार्य करने को कहा जाता है।
2.इकाई के आधार पर -
(क) विभागीय स्थानांतरण-एक इकाई में कई विभाग होते हैं। इनमें प्रायः कर्मचारियों का एक विभाग से दूसरे विभाग में स्थानांतरण किया जा सकता है। जैसे - उत्पादन विभाग से विक्रय विभाग में या क्रय विभाग में या परिवहन विभाग में स्थानांतरण।
(ख)अन्तः संयंत्र स्थानांतरण -यह स्थानांतरण एक ही संगठन एवं प्रबंध के अधीन कई संयंत्र, कई इकाईयाँ अथवा कई कार्यालय हो सकते हैं। उनमें भिन्न-भिन्न इकाईयों में स्थानांतरण ही अन्तः संयंत्र स्थानांतरण कहा जाता है।
इकाई के आधार पर स्थानांतरण में विशेषतः अन्तः संयंत्र स्थानांतरण में कर्मचारी को प्रशिक्षित करने की आवश्यकता हो सकती है। अतः स्थानांतरण करते समय इन बातों को ध्यान में रखा जाना चाहिए।
4. पदावनति के कारणों को बताइए।
पदावनति-पद-अवनति से आशय कर्मचारी को एक ऐसा पद प्रदान करने से है, जो कम उत्तरदायित्व एवं प्रतिष्ठा वाला हो।”
पद-अवनति किसी प्रकार सराहनीय कार्य नहीं कहा जा सकता। प्रबंधक द्वारा इसका अनुकरण इन स्थितियों में किया जाता है-
1.जब कर्मचारी वर्तमान पद पर ठीक तरह से कार्य नहीं कर रहा हो।
2.उसने नियम भंग किया हो तथा उसे दण्ड स्वरूप अवनति दी जाती है।
3.उच्च पद किसी कारणवश समाप्त होने पर भी कर्मचारी को रोजगार से बचाने के लिए निम्न उत्तरदायित्व वाला पद सौंपा जाता है। सरकारी प्रतिष्ठानों में अथवा सरकारी विभागों में किसी कारखाने या विभाग के बंद हो जाने पर उसके कर्मचारियों को अन्यत्र कम उत्तरदायित्व, कम वेतन एवं कम प्रतिष्ठा वाले पदों पर रखा जाता है।
4.अनेक बार पदोन्नति दोषपूर्ण होती है, उसे ठीक करने के लिए भी पद अवनति दी जाती है।
5.पदोन्नति के पश्चात् यदि प्रशिक्षण काल में कर्मचारी का कार्य संतोषप्रद नहीं रहता हो तो भी उसे पुनः निम्न पद पर भेज दिया जाता है।
किसी कर्मचारी के लिए पद-अवनति एक गंभीर दण्ड ही नहीं है बल्कि सामाजिक व नैतिक जीवन पर गहरा लांछन भी है। ऐसे कर्मचारी को सह-कर्मचारी, पर्यवेक्षक तथा समाज भी हीन भावना से देखते है, जिससे वह कुण्ठाग्रस्त हो जाता है।
सेवा समाप्ति -कर्मचारी की सेवा समाप्ति से आशय उसे स्थायी रूप से सेवामुक्त करना है। सेवा समाप्ति पर कर्मचारी तथा नियोक्ता के मध्य संविदा समाप्त हो जाता है। कर्मचारी को उसे देय समस्त राशि का भुगतान कर दिया जाता है, तथा कर्मचारी के पास जो संस्था की सम्पत्ति होती है, वह प्राप्त कर ली जाती है। इसे सेवा से पृथक करना (Seperation) भी कहा जाता है।
सेवा समाप्ति के कारण -
1.कार्य समाप्ति पर
2.कार्य असन्तोषजनक होने पर
3.मंदी के समय
4.अनुशासनात्मक कार्यवाही
5.त्यागपत्र दिये जाने पर -कार्य से असन्तुष्टि, वेतन कम या नियमित न मिलना, कार्य पर असुरक्षा, परिवार का बहिष्कार
सेवा समाप्ति के लाभ - जब कर्मचारी की सेवा समाप्ति उसकी अनुशासनहीनता या अभद्र व्यवहार अथवा कार्य कुशलता की कमी के कारण की जाती है। तो अससे संगठन को लाभ होता है। अकुशल श्रमिक उत्पादन लागत में वृद्धि करता हैव अन्य अच्छे कार्यकर्ताओं के मनोबल को घटाता है, कुछ कर्मचारी विघटनात्मक कार्यो में लगे रहते हैं। ऐसे कर्मचारियों की सेवायें करके संगठन औद्योगिक अशान्ति से बच जाता है।
सेवा समाप्ति से हानियाँ -
1.नियोक्ता के कार्य को क्षति पहुँचाती है।
2.कर्मचारी की आय का साधन समाप्त हो जाता है।
3.औद्योगिक अशान्ति की संभावना रहती हैं
4.अनियमित सेवा समाप्ति से अन्य कर्मचारियों की निष्ठा तथा मनोबल कम होता है। अतः सेवा समाप्ति से पहले कर्मचारी को अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर दिया जाना चाहिए।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)
1. मानव संसाधन नियोजन की कोई दो परिभाषा लिखिए।
गोरइन मेकबेथ के अनुसार-मानव संसाधन नियोजन में दो चरण सम्मिलित हैं। प्रथम चरण, ‘‘मानव संसाधन आवश्यकताओं का नियोजन’’ तथा द्वितीय चरण ‘‘मानव संसाधन की पूर्ति का नियोजन’’
डेल योडर के अनुसार- ‘‘कर्मचारी व्यवस्था सम्बन्धी नीति, सामान्यतयः यह धारणा रखती है कि संगठन की वर्तमान एवं भावी मानवीय आवश्यकताओं की व्याख्या उसके गुण स्तर एवं संस्था के सन्दर्भ में की जायेगी। जहां सम्भव होगा, आवश्यकता का पूर्वानुमान किया जायेगा, ताकि आवश्यकतानुसार मानव संसाधन उपलब्ध हो सके।
मानव संसाधन नियोजन, मानव संसाधन की कमी अथवा आधिक्य दोनों अवस्थाओं से उपक्रम की रक्षा करता है और मानव संसाधन की मांग तथा पूर्ति में ऐसा सन्तुलन स्थापित करने में सहायक होता है, जिससे मानव संसाधन सम्बन्धी लागत में कमी लाकर, उसका अधिकतम उपयोग संभव किया जाता है।
मानव संसाधन नियोजन एक व्यापक शब्द है और इसमें मानव संसाधन का पूर्वानुमान, उसका स्कन्ध या स्टाॅक, एवं विश्लेषण, भर्ती तथा विकास सम्मिलित होता है। यह संगठन के वर्तमान तथा भावी उद्देश्यों की पूर्ति करता है।
2. कार्य पर नियुक्ति क्या है?
चयन प्रक्रिया के माध्यम से जब किसी अभ्यर्थी का अन्तिम रुप से चयन कर लिया जाता है तथा उसके नियुक्ति आदेश प्रदान कर दिया जाता है, अगली प्रक्रिया के रुप में उसकी ‘कार्य पर नियुक्ति’ की जाती है। जब नवनियुक्त कर्मचारी कार्य करने के लिए उपस्थित होता है तो संस्थान को उसे उस कार्य पर, जिसके लिए उसका चयन किया गया है, नियुक्त करना होता है।अतएव सही कार्यों पर नव नियुक्त कर्मचारियों को स्थापित करना ही कार्य पर नियुक्ति कहलाती है। वस्तुतः कार्य पर नियुक्ति का अर्थ नव- नियुक्त कर्मचारियों को निर्धारित कार्यों को सौंपना है।
पाॅल पिंगर्स एवं चाल्र्स ए0 मेयर्सके अनुसार- ‘‘कार्य पर नियुक्ति से आशय चयनित अभ्यर्थी को सौंपें जाने वाले कार्य का निर्धारण करना तथा वह कार्य उसे सौंपना है।’’
कार्य पर नियुक्ति का उत्तरदायित्व उस विभागाध्यक्ष का होता है, जिसके विभाग में नये कर्मचारियों की नियुक्ति की जानी है। प्रारम्भ में नये कर्मचारी की कार्य पर नियुक्ति छह महीने से एक वर्ष की परिवीक्षा अवधि पर की जाती है। यदि कर्मचारी का कार्य उक्त समयावधि में सन्तोषजनक पाया जाता है, तो इसके पश्चात् उसे स्थाई रुप से नियुक्त कर दिया जाता है। बहुत ही कम स्थितियों में, किसी कर्मचारी को इस समयावधि के पश्चात् कार्य से निकाला जाता है, जब तक कि वह कार्य के प्रति आवश्यकता से अधिक उदासीन एवं लापरवाह न हो अथवा उसका चरित्र संदेहास्पद न हो।
मानव संसाधन प्रबन्धन के अन्तर्गत कार्य पर नियुक्ति एक महत्वपूर्ण क्रिया होती है, क्योंकि इसके ठीक प्रकार से सम्पन्न किए जाने से कर्मचारी परिवर्तन, अनुपस्थितता, दुर्घटनाओं में कमी होती है तथा कर्मचारियों के मनोबल एवं कार्यक्षमताओं में वृद्धि होती है।
3. आगमन प्रक्रिया क्या है?
आगमन, प्रशिक्षण, पदोन्नति व पदावनति एवं स्थानांतरण
आगमन या कार्य परिचय (INDUCTION)
नवनियुक्त कर्मचारी, कार्य के प्रारम्भ में कुछ कठिनाई अनुभव कर सकता है, किन्तु यदि उसे कार्य के बारे में भली भांति पर्याप्त जानकारी दी जाये तो वह सुचारू रूप से कार्य कर सकता है। इस प्रकार कार्य परिचय “व्यक्ति को कार्य के बारे में जानकारी देने तथा सन्निहित समस्याओं को समझाने की प्रक्रिया है।” यह नये कर्मचारी की उत्सुकता को कम करने में सहायक होता है, जो उसे नये कार्य की जानकारी के लिए होती है।
कार्य परिचय के उद्देश्य -
1.नये कर्मचारी को कार्य का महत्व बताना, आवश्यक प्रशिक्षण एवं संभावित कठिनाईयों की जानेकारी देना।
2.कम्पनी के इतिहास तथा उत्पादन की विधियों की जानकारी देना।
3.उपक्रम का संगठनात्मक ढंाचा संयत्र की स्थिति तथा विभिन्न विभागों के कार्य सम्बन्धी सूचना देना।
4.कर्मचारी को स्वयं के विभाग सम्बन्धी कार्य तथा सामान्य संगठन में उस विभाग के महत्व बतलाना।
5.कम्पनी की नीतियों, उद्देश्यों तथा नियमों की जानकारी प्रदान करना।
6.सेविवर्गीय विभाग तथा फोरमैन के संबंध स्पष्ट करना।
7.सेवा की शर्तों, मान्यताओं, श्रम कल्याण सुविधा तथा अन्य उपलब्ध लाभों की जानकारी देना।
8.कार्य के घण्टे, अधि समय कार्य भुगतान पद्धति, सुरक्षा एवं दुर्घटना से सुरक्षा, बचाव सम्बन्धी नियम, छुट्टियों, अवकाश तथा थकावट अनुभव होने पर प्रार्थना करने की विधि आदि की जानकारी देना।
9.परिवाद निवारण पद्धति एवं अनुशासन प्रणाली के बारे में सूचित करना।
10.सेविवर्गीय नीतियों एवं सूचना के स्त्रोत सम्बन्धी परिचय कराना।
11.सामा0 लाभा जैसे बीमा लाभ योजनायें, सेवा निवृत्ति, ग्रेच्युटी आदि तथा मनोरंजनात्मक सुविधाओं की जानकारी देना।
12.पदोन्नति के अवसर, स्थानांतरण, सुझाव योजनाओं एवं कार्य स्थायित्व सम्बन्धी जानकारी देना।
परिचय कार्यक्रम (Induction Programme)
परिचय कार्यक्रम के तीन मुख्य चरण हैं-
सेविवर्गीय विभाग के कर्मचारियों द्वारा कर्मचारी को सामान्य जानकारी देना।
कार्य-पर्यवेक्षक या उसके प्रतिनिधि द्वारा कार्य की विशिष्ठ जानकारी देना।
सेविवर्गीय विभाग या पर्यवेक्षक द्वारा कालान्तर में दोहराने के स्वरूप की जानकारी देना।
1.प्रथम चरण का कार्य -सेविवर्गीय विभाग द्वारा किया जाता है। वह संगठन के बारे में ऐतिहासिक जानकारी देता है तथा कर्मचारी को कार्य-प्रणाली से अवगत कराता है, जिससे कर्मचारी उपक्रम के विभिन्न पहलुओं के बारे में ज्ञान प्राप्त कर सके। इसके अतिरिक्त उन्हें सेवा नियमों की सामान्य जानकारी भी दी जा सकती है, जिसमें सेवा निवृत्त नियम, स्वास्थ्य सेवायें, श्रम कल्याण कार्य और सुरक्षात्मक कार्यक्रम आदि की जानकारी दी जाती है। सबसे अच्छी नीति यह है कि समस्त जानकारी एक साथ न दी जाकर शनैः शनैः दी जाये।
2.द्वितीय चरण की जानकारी -पर्यवेक्षक द्वारा दी जाती है। यह विशिष्ट जानकारी होती है। तथा इसे देने के लिए फोरमैन को पूर्णतः तैयार रहना पड़ता है। कर्मचारी को विभाग कार्य का स्थल आदि बताया जाता है, सहयोगी कर्मचारियों से परिचय कराया जाता है। प्रसाधन व अल्पाहार गृह की स्थिति तथा समय पर आने सम्बन्धी सूचना आदि दी जाती है और विशिष्ट परम्पराओं जैसे कर्मचारी दोपहर का भोजन स्वयं लाते हैं या यही मिलता है कार्य की पोशाक कम्पनी देती आदि की जानकारी दी जाती है। विशिष्ट जानकारी का उद्देश्य यह होता है कि नवांगतुक कार्य तथा कार्य के वातावरण में अपने आपको समायोजित किया जा सके।
3.तृतीय चरण (अर्थात् दोहराने स्वरूप जानकारी कार्यक्रम)-कार्य नियुक्ति कुछ समय के उपरान्त प्रारंभ होता है। यह काल एक सप्ताह से छः माह तक हो सकता है। इसका उद्देश्य यह ज्ञात करना होता है कि कर्मचारी उपलब्ध जानकारी से संतुष्ट है या नहीं, वह कार्य के प्रति संतुष्ट है या नहीं तथा प्र्यवेक्षक उससे संतुष्ट है या नहीं।
कार्य परिचय विधि -सही अर्थ में कार्य से परिचय तभी होता है, जब एक व्यक्ति को अन्तिम रूप से चयन कर लिया जाता है किन्तु फिर भी साक्षात्कार के समय उसे प्रतीक्षालय में बढ़ाना, उसे सुविधाजनक वातावरण प्रदान करना, उसके आवश्यक प्रमाण प.ों की जांच करना आदि बातों का व्यक्ति पर एक अमिट प्रभाव पड़ता है। जिससे वह लम्बे समय तक चाहे उसका चयन हो या न हो, प्रभावित रहता है। इस बात को परिचय के क्षेत्र से बाहर नहीं किया जा सकता है। इन प्राथमिक तथ्यों के आधार पर प्रार्थी यह ज्ञात कर लेता है कि उसे नियोजन के पश्चात् कार्य करने में सुविधा होगी या नहीं।
इस प्रकार, कार्य परिचय का प्रथम चरण सुविधाजनक प्रतीक्षालय, प्रश्नों के तुरन्त, मृदु एवं भली प्रकार जबाव देने एवं साक्षात्कार क्रम बनाने से प्रारंभ होता है। कार्य प्रारंभ करने से पूर्व उसे किस प्रकार की कार्यवाही पूर्ण करनी होती है, इसके बारे में ज्ञान दिया जाता है, जैसे शारीरिक जांच, समय पर आने की सूचना रखना, कार्य करने का अनुज्ञापत्र प्राप्त करना आदि। इसके उपरान्त कार्य के बारे में विस्तृत जानकारी दी जाती है।
कार्य परिचय विधि के अन्तर्गत निम्न बातों की जानकारी दी जाती है-
1.उन सभी क्रियाओं से परिचित कराना, जिसमें नवांगतुक को कार्य करना होता है।
2.कार्य के समय सम्बन्धी जानकारी।
3.विभाग में प्राप्त होने वाले बोनस अथवा अन्य पुरस्कार सम्बन्धी जानकारी।
4.कम्पनी के नियम तथा सुरक्षात्मक उपायों की जानकारी।
5.स्नानगृह, शौचालय एवं मूत्रालय की स्थिति सम्बन्धी जानकारी।
6.भोजन अवकाश एवं कैन्टीन व्यवस्था की जानकारी।
7.सुरक्षात्मक उपायों एवं वस्तुओं की सुविधा।
8.निम्न तथ्यों की जानकारी एवं पद्धति का विश्लेषण-
(क) परिवाद निवारण पद्धति, सामूहिक वार्ता प्रणाली, सुझाव प्रणाली।
(ख) कार्य निष्पादन, पदोन्नति एवं वरिष्ठता क्रम सम्बन्धी नियमों की जानकारी।
9.शिक्षा एवं प्रशिक्षण सम्बन्धी जानकारी।
10.श्रम कल्याण सम्बन्धी सेवायें, जो कम्पनी द्वारा उपलब्ध की जाती है।
इस सभी प्रकार की जानकारी से परिचय कराने के लिए एक जांच सूची का प्रयोग किया जाता है, जिससे यह ज्ञात होता है कि सभी आवश्यक जानकारी व्यक्ति विशेष को दे दी गई है।
4. मानव संसाधन नियोजन की अवधारणा क्या है?
मानव संसाधन नियोजन का अर्थ किसी उपक्रम के सन्दर्भ में, उसके द्वारा कर्मचारियों की मांग एवं पूर्ति में सामन्जस्य स्थापित करना है। यह उपक्रम द्वारा अपनी मानवीय आवश्यकताओं का पूर्वानुमान है। मानव संसाधन नियोजन एक ऐसा कार्यक्रम है, जिसके अन्तर्गत उपक्रम की मानव संसाधन की व्याख्या एवं भावी जरुरतों या आवश्यकताओं का अनुमान प्रस्तुत किया जाता है।
मानव संसाधन नियोजन का अर्थ किसी उपक्रम के सन्दर्भ में, उसके द्वारा कर्मचारियों की मांग एवं पूर्ति में सामन्जस्य स्थापित करना है। यह उपक्रम द्वारा अपनी मानवीय आवश्यकताओं का पूर्वानुमान है। मानव संसाधन नियोजन एक ऐसा कार्यक्रम है, जिसके अन्तर्गत उपक्रम की मानव संसाधन की व्याख्या एवं भावी जरुरतों या आवश्यकताओं का अनुमान प्रस्तुत किया जाता है।
Comments
Post a Comment